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Sunday, January 29, 2017

संडे की लाचारी

सुबह की मध्यम थी पुरवाई
वो, इतवार की थी पहली अंगड़ाई
पलके अभी नहीं खुली थी पूरी
अखियों में अब भी कुछ नींद समाई थी
हम सोये से अधजगे से करवटे बदले पड़े थे
तन कहता कुछ देर और जरा
सोलेने दो, समझो तो कुछ मेरी व्यथा
मन की माने तो उठ जा
अभी करने को है कितना काम पड़ा
कुछ गंदे है कुछ गीले है
कपड़े अब भी वैसे ही पड़े है
इन्हीं उधेड़ बुन में था मैं पड़ा
तब तक घंटी बजी दरवाजे पे था कोई खड़ा
कुक अब आ गई थी
मेरे हर उम्मीदों पे पानी फेरने
अब सब छोड़ ये था सोचना
आज खाने में क्या है बनना

 
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