जिंदगी के उतार चढावो में
गिरते संभलते हम आ गए कहाँ
बचपन की उस गोद से
माँ के आचल की छाव से
पापा के फटकार से
बाबा के प्यार से
दादी के लोरियों से
आ गए हम कहाँ
जब कोई गम न था
जब हम में हम न था
हर पेड़ पौधे जब दोस्त थे
गली का हर कुत्ता रखवाला था
निकल कर उस समय से
आ गए हम कहाँ
जब सब को परेशान करना
कोने में छुप कर गेंद के लिए रोना
पेन्सिल को खा के पेट भरना
टिफिन में मिले लडू को चुपके से
खाने की जो आदत थी
उन आदतों को कहाँ भूल आये हम
वो बचपन वो झूले वो लोरी
वो मासूमियत वो हसना वो रोना
कहाँ छोर आये हम
कब भूले वो सब पता भी न चला
समय का पहिया कुछ ऐसा चला



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