लिखने को कुछ लब्ज सोचते है
पर लिखे क्या ये सोचते है
और सोच की उधेड़-बुन है इतनी की,
भूल जाते है लिखने तक कि क्या सोचते है
चलते चलते यूँही राहों में
धुंदली-धुंदली यादों के साये में ,
कुछ बाते है कुछ यादे है
पास सम्हाले रखे कुछ अफसाने कुछ फ़साने है
बस फिर दिल इनसे ही भर आता है,
लिखने तक फिर सोच-सोच कर ही
मन थक जाता है
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